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हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्। यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सो᳕ऽसाव॒हम्। ओ३म् खं ब्रह्म॑ ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अन्त में मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (हिरण्मयेन) ज्योतिःस्वरूप (पात्रेण) रक्षक मुझसे (सत्यस्य) अविनाशी यथार्थ कारण के (अपिहितम्) आच्छादित (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम अङ्ग का प्रकाश किया जाता (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण वा सूर्य्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्षरूप (अहम्) मैं (खम्) आकाश के तुल्य व्यापक (ब्रह्म) सबसे गुण, कर्म और स्वरूप करके अधिक हूँ (ओ३म्) सबका रक्षक जो मैं उसका ‘ओ३म्’ ऐसा नाम जानो ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो मैं यहाँ हूँ, वही अन्यत्र सूर्य्यादि लोक में, जो अन्यस्थान सूर्य्यादि लोक में हूँ वही यहाँ हूँ, सर्वत्र परिपूर्ण आकाश के तुल्य व्यापक मुझसे भिन्न कोई बड़ा नहीं, मैं ही सबसे बड़ा हूँ। मेरे सुलक्षणों के युक्त पुत्र के तुल्य प्राणों से प्यारा मेरा निज नाम ‘ओ३म्’ यह है। जो मेरा प्रेम और सत्याचरण भाव से शरण लेता, उसकी अन्तर्यामीरूप से मैं अविद्या का विनाश, उसके आत्मा को प्रकाशित करके शुभ, गुण, कर्म, स्वभाववाला कर सत्यस्वरूप का आवरण स्थिर कर योग से हुए शुद्ध विज्ञान को दे और सब दुःखों से अलग करके मोक्षसुख को प्राप्त कराता हूँ। इति ॥१७ ॥ इस अध्याय में ईश्वर के गुणों का वर्णन, अधर्मत्याग का उपदेश, सब काल में सत्कर्म के अनुष्ठान की आवश्यकता, अधर्माचरण की निन्दा, परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन, विद्वान् को जानने योग्य का होना, अविद्वान् को अज्ञेयपन का होना, सर्वत्र आत्मा जान के अहिंसाधर्म की रक्षा, उससे मोह शोकादि का त्याग, ईश्वर का जन्मादि दोषरहित होना, वेदविद्या का उपदेश, कार्य्यकारणरूप जड़ जगत् की उपासना का निषेध, उन कार्य्य-कारणों से मृत्यु का निवारण करके मोक्षादि सिद्धि करना, जड़ वस्तु की उपासना का निषेध, चेतन की उपासना की विधि, उन जड़-चेतन दोनों के स्वरूप के जानने की आवश्यकता, शरीर के स्वभाव का वर्णन, समाधि से परमेश्वर को अपने आत्मा में धर के शरीर त्यागना, दाह के पश्चात् अन्य क्रिया के अनुष्ठान का निषेध, अधर्म के त्याग और धर्म के बढ़ाने के लिये परमेश्वर की प्रार्थना, ईश्वर के स्वरूप का वर्णन और सब नामों से “ओ३म्” इस नाम की उत्तमता का प्रतिपादन किया है, इससे इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्वाध्याय में कहे अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥४०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथान्ते मनुष्यानीश्वर उपदिशति ॥

अन्वय:

(हिरण्मयेन) ज्योतिर्मयेन (पात्रेण) रक्षकेण (सत्यस्य) अविनाशिनः यथार्थस्य कारणस्य (अपिहितम्) आच्छादितम् (मुखम्) मुखवदुत्तमाङ्गम् (यः) (असौ) (आदित्ये) प्राणं सूर्यमण्डले वा (पुरुषः) पूर्णः परमात्मा (सः) (असौ) (अहम्) (ओ३म्) योऽवति सकलं जगत् तदाख्या (खम्) आकाशवद् व्यापकम् (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत् ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! येन हिरण्मयेन पात्रेण मया सत्यस्यापिहितं मुखं विकाश्यते योऽसावादित्ये पुरुषोऽस्ति, सऽसावहं खम्ब्रह्मास्म्यो३मिति विजानीत ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वर उपदिशति। हे मनुष्याः ! योऽहमत्रास्मि स एवान्यत्र सूर्यादौ योऽन्यत्र सूर्य्यादावस्मि स एवाऽत्राऽस्मि सर्वत्र परिपूर्णः खवद् व्यापको न मत्तः किञ्चिदन्यद् बृहदहमेव सर्वेभ्यो महानस्मि मदीयं सुलक्षणपुत्रवत् प्राणप्रियं निजस्य नामौ३मिति वर्त्तते। यो मम प्रेमसत्याचरणभावाभ्यां शरणं गच्छति तस्यान्तर्यामिरूपेणाहमविद्यां विनाश्य तदात्मानं प्रकाश्य शुभगुणकर्मस्वभावं कृत्वा सत्यस्वरूपावरणं स्थापयित्वा शुद्धं योगजं विज्ञानं दत्वा सर्वेभ्यो दुःखेभ्यः पृथक्कृत्य मोक्षसुखं प्रापयामीत्यो३म् ॥१७ ॥ अत्रेश्वरगुणवर्णनमधर्मत्यागोपदेशः सर्वदा सत्कर्मानुष्ठानावश्यकत्वमधर्माचरणनिन्दा परमेश्वरस्यातिसूक्ष्मस्वरूपवर्णनं विदुषा ज्ञेयत्वमविदुषामविज्ञेयत्वं सर्वत्रात्मभावेनाहिंसाधर्मपालनं तेन मोहशोकादित्याग ईश्वरस्य जन्मादिदोषराहित्यं वेदविद्योपदेशनं कार्य्यकारणात्मकस्य जडस्योपासननिषेधस्ताभ्यां कार्य्यकारणाभ्यां मृत्युं निवार्य्य मोक्षसिद्धिकरणं जडवस्तुन उपासनानिषेधश्चेतनोपासनविधिस्तदुभयस्वरूपविज्ञानाऽऽवश्यकत्वं शरीरस्वभाववर्णनं समाधिना परमेश्वरमात्मनि निधाय शरीरत्यागकरणं शरीरदाहादूर्ध्वमन्यक्रियानुष्ठाननिषेधोऽधर्मत्यागाय धर्मवर्द्धनाय परमेश्वरप्रार्थनमीश्वरस्वरूपवर्णनं सर्वेभ्यो नामभ्य ओ३मित्यस्य प्राधान्यप्रतिपादनं च कृतमत एतदर्थस्य पूर्वाऽध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांना ईश्वर उपदेश करतो की, हे माणसांनो ! मी येथे सूर्यलोकात व त्याबाहेर इतर सूर्य लोकातही आहे व आकाशाप्रमाणे सर्वत्र व्यापक आहे. माझ्यापेक्षा कोणी मोठा नाही. मीच सर्वांत मोठा आहे. सुलक्षणी पुत्राप्रमाणे माझे प्रिय नाव ओ३म् आहे. जो माझी भक्ती करतो व सत्याचरण करून शरण येतो. त्याच्या अविद्येचा नाश करून मी अंतर्यामी रूपाने त्याच्या आत्म्यात प्रकाश पाडतो. त्याला शुभ, गुण, कर्म स्वभावाचा बनवितो व सत्यस्वरूपाचे आवरण स्थिर करून योगाच्या साह्याने विज्ञानयुक्त बनवून त्याची सर्व दुःखातून सुटका करतो आणि मोक्ष सुख प्राप्त करून देतो.